मसीहा की तलाश करना व्यर्थ हैं आज...

कितना हैरानी होती है न कि कोई, 
चहरदीवारी के बीच एक छत तले, 
अपनी सिसकियों का गला घोंट दे, 
ताकि कोई और सुन न ले उनके , 
पीड़ा के सातों स्वरों को, उलझनों को, 
तुम कभी उसके स्वरूपों को महसूस करों, 
खुद कभी एक दिन उस किरदार में जियों, 
माँ होती है तो ममता से भरी होती हैं, 
बहन बनती हैं तो हर डग से कदम मिलाती हैं, 
पत्नी होती है हर क्षण में अर्धांगिनी होती हैं, 
माता के आँचल की खूबसूरत छाप होती हैं, 
पिता के लिए तो एक परी होती हैं, 
देखो न हर किरदार में कितनी खरी होती हैं, 
ये पुरानी सडी़ हुयी दस्तूरों को अब बदलना चाहिये, 
इन चहरदीवारी व छतों की बंदिशों को तोड़ना चाहिये, 
स्वयंभू समाज के कुटिल चक्रव्यूह के जंजाल से, 
अब इन सबो को बाहर निकलना चाहिये, 
मसीहा की तलाश करना व्यर्थ हैं आज, 
स्वयं इन्हें खुद का मसीहा बनना चाहिये, 
ममता का सलिल सदा ही बहता रहें, 
बचपन को आँचल का छाँव मिलता रहे, 
सृष्टि का सृजन विस्तार चलता रहें, 
यह हम सबको समझना चाहिये, 
हम सबको समझना चाहिये। 

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