बढ़ चला है...

 


ऋतु बीत चुकी हैं बहारों की,

श्रमजल ही श्रृंगार बना,

जीवन के  रंगमंच पर,

फिर से नव किरदार गढ़ा,

अंतर्मन के तम में एक,

सूर्यांश प्रज्ज्वलित हुआ,

घटाटोप अंधियारे में भी,

ध्येय पथ हैं चमक उठा,

युवा मन फिर उमंग भर,

संयम की उंँगली पकड़,

निज अनुभव कोष से,

एक नयी कहानी गढ़ने,

धन्य जवानी करने,

पथ पर आगे ,

बढ़ चला है

बढ़ चला है...

📷 निखिल यादव

कहानी...

अनगिनत 
कहानी है,
सुनाने को,
कुछ पढ़ी हुयी,
कुछ सुनी हुयी,
कुछ अनुभव के
धागे से बुनी हुयी,
कुछ सिसकी से भरी
कुछ किलकरी से सजी
किसी मे हौले - हौले
किसी मे उफ़ान पर
बहती नदी
किसी मे यौवन का उन्माद
किसी मे बुढ़ापे  का विषाद
किसी मे मुठ्ठी-बन्द रेत सी
फ़िसलती हुयी जिन्दगी
कई सारी ऋतु
कई अतुलनीय भाव
रिमझिम-रिमझिम बरसात
गरम-गरम पकौड़ें
चाय की चुस्की 
एक कहानी और आप  ..

उम्मीद की क्षितिज पर...



दुनिया, जहाँ अगला पल
हमारे हिस्से में हो न हो 
हम नहीं जानते फिर भी
उम्मीद की क्षितिज पर
स्वप्न की घटायें
सजाते जा रहें हैं|
हँसते - रोते
रुठते - मनाते
जिन्दगी के मुक्तक 
गाते जा रहे हैं|
आकांक्षा की फेहरिस्त
बहुत लंबी हो चली है
'जरुरत' के मोती को
पौरुष के धागे से
अहिस्ता-अहिस्ता
पिरोये जा रहे हैं|



अक्षर



हर अक्षर
कुछ कहता है, 
जीवन पथ पर, 
आदि काल से, 
मानव नित, 
डग भरता है, 
कुछ खट्टे, 
कुछ मीठे, 
अनुभव लेकर, 
आगे ही आगे, 
बढ़ता है, 
हर अक्षर 
कुछ कहता है, 
कुछ भावों के, 
हिस्से रहता है, 
वैसे तो अक्षर, 
भावों को ही, 
धरती के, 
घट-घट में, 
नूतन स्वरूप धर, 
नव झंकार से, 
झंकरित करता है, 
हर अक्षर
कुछ कहता है... 

क्षुधा




ईट के भठ्ठे में धधकती आग से, 
कहीं ज्यादा धधकती है, 
पेट में लगी भूख की आग, 
तपिश दोनों ही में है परन्तु, 
बुझ रही है , 
एक आग से दूसरी "आग", 
चाहत थी कि ये भी फेरें, 
अपने बच्चों के सिर पर, 
ममतामय निज हाथ, 
परन्तु स्नेह मात्र से कहाँ
बुझती है क्षुधा की आग?