क्षुधा




ईट के भठ्ठे में धधकती आग से, 
कहीं ज्यादा धधकती है, 
पेट में लगी भूख की आग, 
तपिश दोनों ही में है परन्तु, 
बुझ रही है , 
एक आग से दूसरी "आग", 
चाहत थी कि ये भी फेरें, 
अपने बच्चों के सिर पर, 
ममतामय निज हाथ, 
परन्तु स्नेह मात्र से कहाँ
बुझती है क्षुधा की आग?

बिछड़ते वक्त...



जीवंत वर्तमान, 
गर्भित भविष्य, 
सिसकते चेहरे, 
रेगती  जिन्दगी, 
आशावान कल, 
हे काल! तुम हो, 
महज एक क्षण, 
परन्तु तुम्हारे, 
इतने भाव, 
भला कैसे? 
हो अभिव्यक्त, 
कभी पतझड़, 
कभी वसंत, 
कभी गर्मी, 
कभी शिशिर, 
कभी सुख, 
कभी दुख, 
कभी अमावस्या, 
कभी पूर्णिमा, 
हे कालचक्र! 
अद्भुत हो तुम, 
अभी तुम्हारे, 
और भी रुप|
मैं तो एक, 
सरल मानव, 
तुम्हीं कहो, 
कैसे रहूँ मैं?  
हर एक क्षण, 
तुम्हारा कृतज्ञ, 
और आनंद-विभोर|

देखा हैं...


देखा हैं...
एक 'स्मार्ट सिटी' में, 
नाले के किनारे , 
कूड़ो के ढेर पर, 
सिसकते बचपन को , 
अपना भविष्य ढूंढते देखा है|
वक्त की चौखट पर , 
गगनचुंबी इमारतों के साये में , 
कुछ भूखें-प्यासों को ,
तड़पते देखा है|
रंगीन शीशों के आड़ में में 
लोगों को,
पूरी दुनिया को, 
रंगीन समझते देखा है |
विकास की भेड़ चाल में, 
ध्वस्त शिक्षा की आड़ में, 
देश के नौजवानों को , 
यूँ ही भटकते देखा हैं|
नव निर्मित समाज में , 
सृजनकर्ताओं के प्रभाव में , 
मर्यादाओं को ,
फड़कते देखा हैं|

एक छोटा सा दिया जलायें...



प्यासा तिमिर, 
जीवन दीपों की चाह में, 
आ पहुंचा हैं द्वार तक , 
चंचल, चपल मानव आज, 
स्वयं जकड़ा हुआ निज सदन में, 
निराशा का घुप्प अंँधेरा, 
कुटुम्ब में भी एकाकी का ड़ेरा, 
प्रातः - सायं दोनों ठहरा, 
इस घड़ी में भी कुछ प्रहरी, 
सेवा-भाव से जल रहें हैं, 
तिमिर से नित लड़ रहें हैं|

हे भारतवासी! आओं सब मिलकर, 
इन सजीव दीपों के सम्मान में, 
जन-मानस के आशा संचार में, 
एक छोटा सा दिया जलायें|


हे मानव!


अद्भुत सी सृष्टि की रचना, 
उपवन, पर्वत, नदियाँ व झरना, 
इसमें मानव हैं एक सुंदर कल्पना, 
सभी गुणों को अंतस में धरे हुये, 
उर में संवेदन भावों को भरें हुये, 
इसके वर्गीकरण के मानक अनेक, 
दिव्यांग भी है उनमें से एक, 
हे मानव! सृष्टि के ध्वजवाहक, 
इसे सहज ही स्वीकार करें, 
इस करुणामयी धरणी पर, 
मानवता के वात्सल्य छाँव में, 
निज अनुपम जीवनगान कहें, 
जीवट जीवन अभिलाषा से, 
सृजनहार को धन्यवाद करें|