वसंत




मन पुलकित हैं आज प्रकृति का,
वेला वसंत की द्वारें आयी हैं, 
सरसों के पीलें फूलों की चदरिया,
देखों न चहुँओर खेतों में बिछाई हैं।

बगीचों में  देखो आम के पेड़ों पर, 
बौरों ने भी अब ली अंगड़ाई हैं, 
जहाँ तक हमारी नजर जा रहीं हैं, 
मादकता यौवन की  हर ओर छाईं हैं। 

प्रेम का सलीका कोई वसंत से सीखें, 
श्रृंगार में ही स्वागत , श्रृंगार में ही विदाई हैं,
पार्वती ने वसंत में ही शंंभू संग ब्याह रचाई हैं,                     
वसंती आँचल में ही होली की फुहार समायी हैं। 

बचपन, जवानी, बुढ़ापा सब पर एकसार होकर, 
हृदय के सुरों से 'राग बसंत' की धुन बजाई हैं, 
अपना भी मिलन हो जायें इस धरा पर अब, 
तभी ऋतु वसंत ने वसुधा पर महफिल सजाई हैं। 


प्रेम



चलो देखें की पन्नों में कितनी ताजगी बाकी है, 
हमारे रिश्तों में अब कितनी नाराजगी बाकी हैं, 
कभी कहते थे वो कि तुम सुगंधित पुष्प जैसे हो, 
जब लाँघकर जाने लगी मेरे आशियाने की चौखट, 
तब समझे कि हम पुष्प हैं, अब मुरझाने की बारी हैं। 

अभी आज मैंने दर्पण में स्वयं की छवि देखी, 
मुझे मेरी ही छवि बड़ी मनमोहक लगी, 
उसी दर्पण में कल भी देखा था अपनी छवि, 
लेकिन वो आज सी मनोहर न थी, आकर्षक न थी। 

भला मैं तुम्हारी शक्लों-सूरत पर क्यों मरता, 
जो आज हैं, कल रहें न रहें कौन जानता हैं, 
हाँ सच है कि तुम से प्रेम था आज भी है, 
तुम्हीं से प्रेम क्यों है, ये तो मैं भी नहीं जानता। 

भला ये प्रेम कौन सी बला का स्वरूप होता हैं, 
परछाईं तो नहीं हैं ये, जो हमेशा साथ होती हैं, 
नहीं परछाईं तो उजाले की मोहताज होती हैं, 
तो प्रेम जरूर पूर्णिमा की शीतल चाँदनी होगी, 
पूर्णिमा की शीतल चाँदनी?अरे! माह में एक बार ही। 

कही ये प्रेम चिरागों के लौ की रोशनी तो नहीं , 
अरे! नहीं इन्हें तो मरते देखा हैं, अंधियारों के सामने, 
विश्वास नहीं होता है न तुम्हें चिरागों के लौ की मौत का, 
मेरें ताखें में कालिख के धब्बे,इसकी गवाही देते हैं। 

तुम मुझे आखिर स्वीकार क्यों नहीं कर लेती, 
जैसे मैंने तुम्हें स्वीकार कर लिया है जीवन में, 
प्रेम तर्क, छल-प्रपंच, स्वार्थ ,दिखावे से परे हैं, 
प्रेम मरमरी हृदय का अनंत विस्तार चाहता है। 


फिर से 'इंकार' कर जाओं ...



क्यों मैं करुण कहानी कहूँ तुम्हारे बिछड़ जाने की,
जमाना डूब के सुनता है किस्सा किसी के टूट जाने की, 
हमारे पतझड़ से तुम्हारे आँगन में फिर आई ऋतु बहार की, 
देखो न कितना छोटा कद है तुम्हारी इन नादान खुशियों का, 
हमें लहजा याद है अबतक तुम्हारी चहकती मुस्कुराहटों का, 
तुम्हारे धवल श्रम जल से भीगे उन्मुक्त स्वर्णिम ललाट का, 
मैं हृदय से चाहता हूँ कि तुम मेरे किस्से में किरदार बन जाओं, 
हर बंदिशे , हर डर को यूँ ही भूल तुम मेरी हमराह बन जाओं, 
अपने इंकार से मेरे खातिर एकबार फिर से 'इंकार' कर जाओं। 


मसीहा की तलाश करना व्यर्थ हैं आज...

कितना हैरानी होती है न कि कोई, 
चहरदीवारी के बीच एक छत तले, 
अपनी सिसकियों का गला घोंट दे, 
ताकि कोई और सुन न ले उनके , 
पीड़ा के सातों स्वरों को, उलझनों को, 
तुम कभी उसके स्वरूपों को महसूस करों, 
खुद कभी एक दिन उस किरदार में जियों, 
माँ होती है तो ममता से भरी होती हैं, 
बहन बनती हैं तो हर डग से कदम मिलाती हैं, 
पत्नी होती है हर क्षण में अर्धांगिनी होती हैं, 
माता के आँचल की खूबसूरत छाप होती हैं, 
पिता के लिए तो एक परी होती हैं, 
देखो न हर किरदार में कितनी खरी होती हैं, 
ये पुरानी सडी़ हुयी दस्तूरों को अब बदलना चाहिये, 
इन चहरदीवारी व छतों की बंदिशों को तोड़ना चाहिये, 
स्वयंभू समाज के कुटिल चक्रव्यूह के जंजाल से, 
अब इन सबो को बाहर निकलना चाहिये, 
मसीहा की तलाश करना व्यर्थ हैं आज, 
स्वयं इन्हें खुद का मसीहा बनना चाहिये, 
ममता का सलिल सदा ही बहता रहें, 
बचपन को आँचल का छाँव मिलता रहे, 
सृष्टि का सृजन विस्तार चलता रहें, 
यह हम सबको समझना चाहिये, 
हम सबको समझना चाहिये। 

आज भी तलाश हैं ...

     जिन्दगी कश्ती सी हो गई है, 
     हमनें भी समंदर में उतार दी है, 
     बिना मंजिल यूँ  ही राही सा हूँ, 
     हवाओं के इशारे पर नाचते हुए, 
     पानी अथाह है मेरे आस-पास, 
     मगर फिर भी मैं बहुत प्यासा हूँ, 
     वीरान होती कोरे कागज सी तो, 
     कुछ रंग खरीदकर भर देता इसमें , 
     मगर 'कुछ रंग' बाजार में नहीं मिलते, 
     यारी- दोस्ती एक एहसास होती हैं, 
     और ये "किसी-किसी" के पास होती हैं, 
     कहने को बहुत से संगी-साथी है, लेकिन
     चल सके कदम दो कदम जो साथ, 
     कह सके जिससे हृदय की बात, 
     हम स्वीकार सके जिसे जस का तस,
     और वह भी मुझे अपना ले ऐसे ही, 
     उस शख्स की आज भी तलाश हैं, 
     आज भी तलाश हैं। 
      
      

     
     

बडी़ जालिम है ये वक्त की सियासत

मुझे शक था उस शख्स पर,
कि अपनी जुबां पर न टिक पायेगा, 
जो आज कह रहा है ,कल मुकर जायेगा, 
हमें भी आदत नहीं किसी की खुशामद की, 
जिन्हें आना है आये, जाने वाला खुद निकल जायेगा, 
कसक नहीं है मुझे जरा भी किसी के आने-जाने की, 
हाँ, कुछ अश्क आँखों से जरूर बिखर जायेगा, 
बडी़ जालिम है ये वक्त की सियासत, 
न जाने किस मोड़ पर तू शरण चाहेंगा, 
हम हुनर जानते हैं, गमों से मोहब्बत का, 
बेखौफ आना तू जरूर रहम पायेगा। 

भूख ने इसकी इजाजत न दी...

ढ़िबरी के उजाले में,
उसने अपनी गरीबी रोशन की थी, 
खुद ठिठुर रहीं थी ठण्ड से, 
गर्म कपड़ो की दुकान सजाकर, 
कोई सपने न थे आँखों में, 
भूख ने इसकी इजाजत न दी, 
उसके बच्चे भी स्कूल जाये, 
नये- नये बैग व ड्रेस पाये, 
ये बस सपने ही रह गए, 
आज भी कूड़े के ढेर में, 
अपने भविष्य तलाशते मिलतें है, 
सियासत ने हर बार वादा किया, 
रियासत मिलतें ही सूरत बदल देगें, 
हर बार धोखा हुआ, 
हर बार धोखा हुआ। 


एक शाम ...

दिन ढल रहा था, 
शाम हो रही थी, 
बाजार की ओर, 
मैं भी बढ़ रहा था, 
हर ओर चकाचौंध थी, 
वस्तुओं के साथ इसकी भी, 
कीमत खरीदार भर रहा था, 
हर कोई अपने अंदाज में यहाँ, 
व्यापार कर रहा था, 
दौलत की जोर से एक सेठ, 
मजदूर के पसीने से, 
आरामकुर्सी पर बैठकर, 
अपनी तिजोरी भर रहा था, 
फुटपाथ पर बैठे एक दुकानदार के,      
माथे पर, आज के भोजन की चिंता, 
साफ-साफ झलक रहा था। 

हमारा अभियान जारी है...

मुस्कुराहट शब्दों को छुपा लेतीं है,
मगर कुछ बात इशारों में बता देती है, 
अभी -अभी उस गली से गुजरा हूँ, 
मैंने देखा कि उसकी सिसकियाँ, 
फौलाद को भी  गला देती है, 
मैंनें चाहा झाक लूँ उसको झरोखों से, 
हर बार पर्दें से खुद को छुपा लेती हैं, 
तुम्हें याद है जब हम बिल्कुल करीब थें, 
हाँ, सही है कि हम कभी मिले ही नहीं, 
मगर फिर भी हम रोज मिलतें थे, 
अपने अपने सपनों के साथ, 
सपने भी तो एक ही थें, 
तुमने उड़ान भर ली, 
हम फड़ - फड़ाते रह गए, 
पहुँची तो तुम भी नहीं , मंजिल पर
हाँ, साया जरूर पा लिया तुमने, 
टूटे नहीं है हम भी अभी, 
समंदर में तूफान जारी है, 
हमारा अभियान जारी है। 

अंधियारे में उजियारा भर दो...



वीर सपूतों के वंशज हैं, 
धीर सदा हम धरते हैं, 
रण में भर दे हुंकार यदि, 
पर्वत भी  थर-थर करते हैं। 
कोना-कोना इस धरती का, 
हमने सदियों से सजाया  था, 
ज्ञान, विज्ञान और कला का, 
अलौकिक ज्योति जलाया था , 
मानव के उत्कर्ष स्वरूप से, 
परिचय हमने करवाया था, 
वेद, पुराण, योग व दर्शन
समस्त विश्व में फैलाया था, 
सच है कि सहस्त्र वर्षों तक, 
आक्रान्ताओं का साया था,
तलवार-तोप के बल पे, 
भय का बादल छाया था, 
अब समय ने करवट बदली है, 
संयमित रहो, संगठित रहो, 
औरों में न भ्रमित रहो, 
हर नुक्कड़ पर दीपक धर दो, 
अंधियारे में उजियारा भर दो।