प्रेम



चलो देखें की पन्नों में कितनी ताजगी बाकी है, 
हमारे रिश्तों में अब कितनी नाराजगी बाकी हैं, 
कभी कहते थे वो कि तुम सुगंधित पुष्प जैसे हो, 
जब लाँघकर जाने लगी मेरे आशियाने की चौखट, 
तब समझे कि हम पुष्प हैं, अब मुरझाने की बारी हैं। 

अभी आज मैंने दर्पण में स्वयं की छवि देखी, 
मुझे मेरी ही छवि बड़ी मनमोहक लगी, 
उसी दर्पण में कल भी देखा था अपनी छवि, 
लेकिन वो आज सी मनोहर न थी, आकर्षक न थी। 

भला मैं तुम्हारी शक्लों-सूरत पर क्यों मरता, 
जो आज हैं, कल रहें न रहें कौन जानता हैं, 
हाँ सच है कि तुम से प्रेम था आज भी है, 
तुम्हीं से प्रेम क्यों है, ये तो मैं भी नहीं जानता। 

भला ये प्रेम कौन सी बला का स्वरूप होता हैं, 
परछाईं तो नहीं हैं ये, जो हमेशा साथ होती हैं, 
नहीं परछाईं तो उजाले की मोहताज होती हैं, 
तो प्रेम जरूर पूर्णिमा की शीतल चाँदनी होगी, 
पूर्णिमा की शीतल चाँदनी?अरे! माह में एक बार ही। 

कही ये प्रेम चिरागों के लौ की रोशनी तो नहीं , 
अरे! नहीं इन्हें तो मरते देखा हैं, अंधियारों के सामने, 
विश्वास नहीं होता है न तुम्हें चिरागों के लौ की मौत का, 
मेरें ताखें में कालिख के धब्बे,इसकी गवाही देते हैं। 

तुम मुझे आखिर स्वीकार क्यों नहीं कर लेती, 
जैसे मैंने तुम्हें स्वीकार कर लिया है जीवन में, 
प्रेम तर्क, छल-प्रपंच, स्वार्थ ,दिखावे से परे हैं, 
प्रेम मरमरी हृदय का अनंत विस्तार चाहता है। 


2 टिप्‍पणियां: