ऋतुराज की सिसकी

  

इस बार ऋतुराज वसंत ने ये खेल खेला हैं,
मेरे गुलशन को छोड़कर हर ओर इनका मेला हैं,
ऋतुराज वसंत ! बतलाओ  मैंने क्या खता की,
कि तुमने मेरे गुलशन में अबतक दस्तक न दी।
शिकायत सुनकर मेरी , वसंत सिसकनें लगा ,
चक्षुओं से उसकी अब मोती भी झरने लगा।

रुँधे गले से अपनी हृदय-व्यथा कहने लगा,
इन कंक्रीटों के शहर में भला मैं कैसें आता,
इन धुंँओं के गुबार में तड़प कर मर जाता,
तुम इस बार अपने गाँव क्यों नहीं चलते?
गाँव के घट-घट में  मेरी वसंती बहार हैं,
सरसों के पीले फूलों को तुम्हारा इंतजार हैं।

अम्मा-बाबूजी की बूढ़ी आँखें आस लगाए हैं,
ये मोहन दो वर्ष से गाँव ही नहीं आयें हैं,
पेट की आग, घर की जरूरतें और कुछ सपने,
मोहन को शहर की ओर खींच लायें हैं,
इस शहर में हर दिन एक नयी जंग हैं,
जिंदगी की कीमत पर सपनों के रंग हैं।

बुनियादें गुमनाम रह जाती हैं, अक्सर जमाने में,
लोग इन पर खड़े महलों से ही 'इश्क' करते हैं,
शहर में बड़ी चर्चा है इन महलों की खूबसूरती का, 
जो किसी बोझ सी हैं बुनियादों की जिन्दगी में। 
महल खूबसूरत है इसमें कोई शक नहीं , 
इनकी तारीफों में क्या बुनियादों को हक नहीं ? 
  

3 टिप्‍पणियां:

  1. वसंत शब्द पुलिंग है अंतिम पंक्तियों का पूरी कविता से कोई तालमेल नहीं है बाकी अच्छा प्रयास किया गया है।

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    1. आपके सुझाव अनुसार क्रिया में सुधार कर दिए हैं, रही बात अंतिम पंक्तियों की तो इससे अम्मा-बाबू जी के अहमियत को दिखाने का प्रयास किये है। तुक नहीं मिले लेकिन भाव पूरे व्यक्त हो रहें हैं । आपके मार्गदर्शन व सुझाव के लिए हृदय से धन्यवाद। आशा है कि आपका मार्गदर्शन व सुझाव भविष्य में भी प्राप्त होतें रहेगें। 🙏🙏🙏

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