हमारे हिस्से में हो न हो
हम नहीं जानते फिर भी
उम्मीद की क्षितिज पर
स्वप्न की घटायें
सजाते जा रहें हैं|
हँसते - रोते
रुठते - मनाते
जिन्दगी के मुक्तक
गाते जा रहे हैं|
आकांक्षा की फेहरिस्त
बहुत लंबी हो चली है
'जरुरत' के मोती को
पौरुष के धागे से
अहिस्ता-अहिस्ता
पिरोये जा रहे हैं|