फिर मैं सो जाता हूँ...

इतना सा उपकार कर दो ,
हमारी हृदय -व्यथा को ,
कविता का नाम न दो ,
कुछ टूटे सितारे पड़े है ,
उन्ही से ये आकाश सजाता हूँ ,
कुछ पुराने गीत है ,
उन्हें गुनगुनाता हूँ ,
घनी काली रातों  में ,
भर नयन सपने बसाता हूँ ,
और फिर भोर में सब बिखरा पाता हूँ ,
हिय में कुछ चिंगारी है,
दिनभर उन्हें धधकाता हूँ ,
सारे बिखरे सपने समेटकर ,
रात को फिर सो जाता हूँ। 
हर दिन जड़वत ,
यही क़िस्सा दोहराता हूँ ,
रात की ओट में ही,
उषा का सन्देश पाता हूँ ,
समय से आगे जाता हूँ ,
प्यास पाता  हूँ ,
पीछे रहता हूँ ,
प्यासा ही रह जाता हूँ ,
और फिर मैं सो जाता हूँ।

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