ढ़िबरी के उजाले में,
उसने अपनी गरीबी रोशन की थी,
खुद ठिठुर रहीं थी ठण्ड से,
गर्म कपड़ो की दुकान सजाकर,
कोई सपने न थे आँखों में,
भूख ने इसकी इजाजत न दी,
उसके बच्चे भी स्कूल जाये,
नये- नये बैग व ड्रेस पाये,
ये बस सपने ही रह गए,
आज भी कूड़े के ढेर में,
अपने भविष्य तलाशते मिलतें है,
सियासत ने हर बार वादा किया,
रियासत मिलतें ही सूरत बदल देगें,
हर बार धोखा हुआ,
हर बार धोखा हुआ।
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