दिन ढल रहा था,
शाम हो रही थी,
बाजार की ओर,
मैं भी बढ़ रहा था,
हर ओर चकाचौंध थी,
वस्तुओं के साथ इसकी भी,
कीमत खरीदार भर रहा था,
हर कोई अपने अंदाज में यहाँ,
व्यापार कर रहा था,
दौलत की जोर से एक सेठ,
मजदूर के पसीने से,
आरामकुर्सी पर बैठकर,
अपनी तिजोरी भर रहा था,
फुटपाथ पर बैठे एक दुकानदार के,
माथे पर, आज के भोजन की चिंता,
साफ-साफ झलक रहा था।
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