बस तुम थी ...



तुम आयें थे मेरी देहरी पर अतिथि बनकर,
व्यपारी तन-मन को प्रेम वसन से ढ़ककर,
समीर चहक गया तुम्हारी सुगंध में घुलकर,
हम भी बहक गये जब देखा तुमनें हँसकर।
स्वागत में  सदन के द्वार खोल दिये,
मुठ्ठी भर के हृदय में तुमको ठौर दिये,
अवसर अनुकूल जानकर तुमने प्रिये,
सम्मोहन बाण इस ओर छोड़ दिये।
ये सब तो बस एहसासों की कहानी हैं,
कोरे सपनों सा, जज्बातों की जुबानी हैं,
तुम्हें फुर्सत कहाँ थी, अपनी किताबों से,
जो देखती कि इनसे पार भी जिंदगानी हैं।
खैर तुम्हारा फैसला एकदम खरा निकला,
तुम्हारी सफलता का झण्डा हरा निकला,
मिल गया तुम्हें एक नयी दुनिया नये लोग,
तो मेरी अनकही चाहत का कद बौना निकला।
चाहत अनकही थी मगर जिंदगी की अंग थी,
लाल, गुलाबी, नारंगी रंगों में एक रंग सी थी,
अब कोई भी इस जिंदगी में संग हो या न हों,
पहली और आखिरी चाहत  बस तुम थी,
बस तुम थी। 

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