प्यासा तिमिर,
जीवन दीपों की चाह में,
आ पहुंचा हैं द्वार तक ,
चंचल, चपल मानव आज,
स्वयं जकड़ा हुआ निज सदन में,
निराशा का घुप्प अंँधेरा,
कुटुम्ब में भी एकाकी का ड़ेरा,
प्रातः - सायं दोनों ठहरा,
इस घड़ी में भी कुछ प्रहरी,
सेवा-भाव से जल रहें हैं,
तिमिर से नित लड़ रहें हैं|
हे भारतवासी! आओं सब मिलकर,
इन सजीव दीपों के सम्मान में,
जन-मानस के आशा संचार में,
एक छोटा सा दिया जलायें|
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